खैरागढ़ उपचुनाव भाजपा हारकर भी जीती है…
जब एक मुख्यमंत्री जनता से सीधे सौदेबाजी करके कहे की वोट दीजिए, आपकी विधानसभा को जिला बना देंगे। आपके क्षेत्र को तहसील बना देंगे, उपतहसील बना देंगे। उपचुनाव के लिए 29 बिंदुओं का घोषणा पत्र जारी करे, इसका मतलब साफ यही होता है कि जनता सत्ता धारी कांग्रेस को पसंद नहीं कर रही है, अब एक ही चारा है कि कैसे भी करके जनता को लुभाओ। कांग्रेस ने वही किया, जिसका उसे फायदा मिला और उसने लगभग जीत दर्ज कर ली है। खैर सियासत में जीत महत्वपूर्ण होती है, चुनाव कैसे जीता गया, यह महत्वपूर्ण नहीं होता।
यह चुनाव कांग्रेस की जगह भाजपा के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण था, आप पूरे चुनाव का एनालेसिस करेंगे तो पाएंगे कि शुरूवात से भाजपा को खैरागढ़ में बढ़त थी, जिस एकजुटता और सक्रीयता के साथ भाजपा ने यह चुनाव लड़ा, वो काबिल ए तारीफ है, भाजपा इसी तरह की आक्रामकता के लिए जानी जाती है, जो धार 2018 के बाद से कहीं खो सी गई थी, वो 2022 में देखने को मिला। पूरी भाजपा मैदान में लड़ती हुई नजर आई, यही कारण है कि कांग्रेस के सारे विधायक मंत्री खैरागढ़ में कई दिनों तक डेरा डाले रहे। मुख्यमंत्री को भी छोटी-छोटी जगहों पर भी सभाएं करनी पड़ी।
उपचुनाव को लेकर माना जाता है कि सत्ताधारी दल की जीत की संभावना ज्यादा होती है, इसलिए ज्यादा मेहनत विपक्ष को करनी होती है, लेकिन खैरागढ़ में भाजपा-कांग्रेस दोनों ने एड़ी की चोट पर मेहनत की। असल मायनों में भाजपा को हार गई लेकिन इस चुनाव ने भाजपा को संजीवनी देने का काम किया है। अभी तक जो विपक्ष सोता हुआ सा लगा था, थका हुआ सा लगता था। इस चुनाव ने अपनी मौजूदगी का अहसास कराया। खासकर डॉ रमन सिंह को लेकर एक बात साफ हो गई कि उनकी लोकप्रियता अभी भी कम नहीं हुई है। खासकर युवाओं औऱ महिलाओं में उन्हें लेकर काफी भरोसा आज भी जस का तस कायम है।
कांग्रेस ने भी मेहनत की है लेकिन बात भाजपा की इसलिए की जा रही है क्योंकि चुनाव की घोषणा से पहले तक कांग्रेस भी इस चुनाव को वॉकओवर मानकर ही चल रही थी, मीडिया के मित्र भी इसे एकतरफा बता रहे थे, लेकिन जैसे-जैसे दिन गुजरे भाजपा ने चतुराई भरी रणनीति पर काम किया। शुरूवाती दिनों में लगने लगा था कि भाजपा यह सीट निकाल लेगी लेकिन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का जिला बनाने की घोषणा ने मास्टर स्ट्रोक का काम किया।
भाजपा के कार्यकर्ताओं ने भी 2018 के बाद पहली बार पूरी समर्पण भाव से काम किया। संगठन भी बूथस्तर तक पहुंचा। वरिष्ठ नेताओं में भी समन्वय दिखा। कह सकते हैं कि भाजपा जिस कैडर के लिए जानी जाती है उसी के अनुरूप यह चुनाव लड़ा गया है। नतीजे भले ही आशा के अनुरूप नहीं आये लेकिन वो कहते हैं न कुछ नहीं होगा तो तर्जुबा होगा। और अब 2023 की असली लड़ाई 17 महीने बाद सामने है, यदि भाजपा इसी जज्बे, एकजुटता, सक्रीयता और खुद को झोंकती है तो परिवर्तन असंभव नहीं है।